Friday 28 November 2014

पड़ाव से गुजरती जिंदगी...

मुझे विषय नही मिल रहा था कि क्या लिखूं ...काफी सोचने के बाद मित्र नें विषय दिया .."किशोर कि सोच"..लोकिन इसके बाद विषय में लिखूं क्या यह समझ नही आ रहा था .तो शुरुवात कि जीवन के पड़ाव से..
जीवन के हर पड़ाव को बस कुछ नामों से सम्बोधित करते ...कभी बचपन ..कभी जवानी ..तो कभी बुढ़ापा ...जीवन इन पड़ावों से गुजर कर अपना रास्ता तय करता है...सभी पड़ाव के अपने-अपने दायरें है...सभी कि अपनी उपयोगिता है...
कोई भी पड़ाव छुटे अंत नही होता ...कहने का अर्थ है कि मौत इन पड़ावों के बाद ही अपनी गति को रोकती है...
पहले पड़ाव कि बात करें तो इस कोइ कभी नही भुल सकता ..इसके होने कि महक ता उर्म इंसान के जहन में अपने होने का अर्थ देती है..जिसे नकार देना इंसान कि सबसे बड़ी भूल हो सकती है..उम्र बितने के साथ इंसान यह कहना नही भूलता की बचपन में मैंने ऐसा किया और ऐसा नही ..यह वाक्य उसके जहन में हर वक्त रटा रहता है ....इन वाक्यों के बिना इंसान अधूरा ही होता है..
बचपन के हर लम्हें को हम जैसा चाहे जी सकते ना किसी का दबाव होता है ..ना किसी कि बंदिश होती है ...हम अपनें विचारों से ...भाव से ..मन से ...जहन से..दिल से..दिमाग से...दबाव से ...हर रुप में पाक साफ होते हैं ...जहां गलतियाँ बचपनें के नाम से मशहूर होती हैं...तभी तो कहते बचपन -बचपन हैं जिसे कभी भुला नही जा सकता...जिसे जैसे रुप में उसे समझना है ...वह वैसे समझ सकता है ..मन आपका है ..तो सोचने कि इच्छा भी आपकी है ...बचपन भी आप का ही है...
दूसरे पड़ाव में जिन्दगी उलझने पैदा करना शुरु कर देती ..जहां बचपन का बचपना दुर हो जाता है ...समझ का दायरा पैर प्रसार लेता है...जहां गलतियां ...गलती में गिनी जाती है...अब बचपन अपने दायरें को बहुत पीछे छोड़ देता है...उलझने सीमा से परे सोचने को मजबूर करनें लगती है...अब जहन ..भाव..विचार... सोच ...मन ..उम्मीद..बंदिशें ...सब का दायरा बड़ जाता हैं...अब समझ नही होती... रटी बातें प्रभावी होती हैं...जहां बाहरी अडंबर हावी होता ..किसी को किसी जिद्द होती ...जहां भागने कि कोशिश रहती है...रेस में सब से आगे निकलने कि चाह हावी होती...जहां लड़ाई दूसरे से  ज्यादा अपने आप से होती है...
यह पड़ाव अपने में सब कुछ समा कर रखता है ..जिसे जिताना खोजे वह उतना जहन को निचोड़ता है...कभी दायरें मजबूरी का रुप लेते है ...अब जीवन तरह-तरह के रंगों से भरें होने कि जगह ..बेरंग छवि का होता है ...अब बचपन जहन में खुशी का संचार का माध्यम होती है ..जिसे सोचकर खुश होने का मंत्र लिया जाता है .......  
ऐसा नही कि हर दूसरे पड़ाव में हर कुछ उलझन में होता है...कुछ उलझने समझते-समझते जीवन के होने का अर्थ समझने में असानी हो जाती हैं... और बहुत कुछ अच्छा भी होता है..जहां आशा...दिलासा...उम्मीद....धैर्य ...कर्म...ओर बहुत कुछ जीवन को बांध कर रखता है...कुछ पल को व्यक्ति बस समझता है...कि यह नियम संसार में सब के साथ बंधा होता है..उस से भागा नही जा सकता ..उस का होना एक निर्धारित क्रम में जीवन ने लिखा ...बस उस का सामना करना ही अंतिम लक्ष्य है ...जहां विजय आपके साहस पर है ...आप अपने आपसे विजय होकर संतुष्ट होते है..
तीसरा पड़ाव बुढ़ापा है..जो आना सबके साथ तय....यह फिर हमें बचपन कि ओर खींच लेता है ..जहां अंत का इंतजार होता हैं .. बस ...इंतजार...इंतजार ...ओर इंतजार....



Thursday 27 November 2014

वक्त-वक्त कि बात है ....

वक्त-वक्त कि बात है ...यह बात लोगों के जहन से कई बार सुनी होगी ...यह बात जितने कम शब्दों में उसका महत्व भी उतना ही बड़ा है...लोगों के साथ होता भी ऐसा ही...वक्त कब करवट खाये और कब नही यह बड़ा खेल है...जिन्दगी में कोई कभी राजा होता है ..तो  कोई कुछ पल में फकीर ..इसलिए तो कहते है वक्त-2 कि बात है...
उदारहण के रुप में एक प्रधानमंत्री को ही ले लेते है..कभी मनमोहन सिंह वह व्यक्ति होते थे जो  देश के सब फैसले लेते थे...सरकार गई... वक्त गया ..सब बदल जाता है...जब वह प्रधानमंत्री थे ...तो उनका पद बोलता था ...आज वह कुछ नही तो बस वह एक साधारण व्यक्ति के रुप में गिने जाते है...इसलिए तो कहते है वक्त-2 कि बात है..
वक्त कब किस के साथ हो कब नही यह वक्त पर निर्भर  करता है..वक्त कि लकीर किस पर कैसे खींचेगी
यह उसका कर्म और किस्मत लिख कर आता है...आज कोई दुखी है... तो उसका वक्त है दुखी होने का ..एक समय बाद वह मुस्कराहट फिर मिलेगी जो उससे वक्त ने छिनना है ..बस कुछ वक्त बनता ही है ..जीवन को कुछ सीखानें के लिए ..ताकि उस वक्त को भी महसूस कर सकें..
बिना महसूस किये उस वक्त को कोइ कभी नही समझ सकता ..जब तक उस परिस्थितियों के साथ खुद ना गुजरें हो...उस एहसास को जब तक अपने से महसूस नही करें .. सब परिस्थितियां कुछ ना कुछ  सीख देती है...

दुसरे के पास उस समय में सांत्वना देने के सिवा ओर कुछ नही होता ..ओऱ वह कर भी क्या सकता है इससे ज्यादा...दोषी परिस्थितियां होती हैं...इंसान नही...
किसी के शब्दों में...जहां वक्त ने जो निर्धारित किया होता है... वह वहीं पहुंचता ..बस उसकी राह कैसे उसे वहां तक पहुंचायेगी यह उसे नही पता होता ..अंत उसका अपने निर्धारित गंतव्य पर होगा ..जहां सब अच्छे होने कि उम्मीद होती है ..उस उम्मीद को कभी किसी को नही छो़ड़नी चाहिए..
इसलिए तो कहते है वक्त-2 कि बात है.....



Tuesday 18 November 2014

चाटुकारिता की सीमा

मीडिया की जो कल्पना आम जन करते हैं ..मीडिया उससे कोसों दूर है...जब हम मीडिया कि हवा को बाहर से महसूस करने कि जगह ..उसके साथ काम करना शुरु करते है ..तो मीडिया का सही रुप प्रदर्शित होता है ..... मीडिया है क्या ?... साधारण से शब्दों में परिभाषित करने की कोशिश करे तो ऐसी वेश्यावृति जो शरीर की नही...पर दिमाग की वेश्यावृति की जाती है ...जिसका सौदे का दल्ला उस कंपनी को चलानेवाला मलिक होता है...जिसे दह कि जगह दिमाग का सौदा करना होता है...
 मलिक (दल्ला) भी ऐसा जिसे सौदे में क्या बेचना हैं यह नही पता ...बस यह पता होता है कि सौंदे के लिए ग्राहक मिल जाए.....उसकी तलाश में ठोकर खाता है...ठोकर में साथ देने के लिए चाटुकारों की टीम होती है...जो पत्रकारिता के अह को मार दल्लों कि पत्रकारिता शुरु करने लगते है ....फिर कहते है पत्रकारिता तो यह होती है ...जहाँ दल्लेबाजी के गुण दिखें ...नही तो पत्रकार कि अह की सीमा जो टूट जायेगी ....
  पत्रकार बेचारा करे भी तो क्या करे उसे अपने परिवार को जो पालना है ....नही तो उसे बाबाओं कि तरह जीवन जीना पड़ेगा ...जो हर कोइ नही कर सकता..



(विचार मेरे निजी है जिसको दिल पर ना लें...)

Monday 17 November 2014

फिर समय चलेगा........

रुकने के लिए कुछ नही होता है..सृष्टि का विधान है ....जो आया है उसे जाना है..
हमारे पास भी ऐसा क्या है ....जो यहीं रुक जाता है ..कहने को तो कुछ नही और सोचने को बहुत कुछ....
विचारों की ऐसी ही गुत्थागुत्थी  जहन में दोड़े तो...
विचारों में कैसे शुद्धता हो सकती हैं...जहन ऐसे ही सवालों के जाल में फंस कर गुत्थ जाता हैं..

आप अपने से पूछों की क्या है सोचने को 
क्या है परकने को...
जहन आपका विचार आप के ...
फिर क्यों भागने कि कोशिश कर रहा..
जो उलझन थी वह उलझ ही गई  है...
  
जो सुलझनी थी वह सुलझेंगी ही है...

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Wednesday 12 November 2014

किसी को इज्जत ...मजाक लगती

कई बार कुछ ऐसा होता हैं....जहां समझ की समझदारी के परकच्च उ़ड़ जाते हैं....उधर समझदारी यही होती है की शांत रहो..नही तो कुछ शब्द बाण की तरह अगात ही देते हैं..
 जीवन में यह सवाल जरुर उठते हैं की गलती हमारी होती है या गलती को समझने की कोशिश ही नहीं करना चाहते..लोग गलती को समझने से पहले ही उस का हल ही ढ़ूढ़ कर बैठ जाते है ...किसी गलती को स्वीकार नही करते या करना नही चाहते ..
सवाल बड़ा टेढ़ा है ..फिर भी कभी-कभी सोचना ही होता है..
की इज्जत मजाक न बन जाये....
  जब यह सवाल जहन से नीचे न उतरे तो लोगों की सोच किधर तक सोच सकती है ..वहां तक उस सोच को सोचना जरुरी हो जाता है....नही तो शरीर बहार से सही होता हैं ..परन्तु दिमाग में सवाल ही घूमते हैं....



सवाल घूमने से दिमाग की कसरत होती हैं इसलिये सवाल घूमने जरुरी हैं............

Monday 10 November 2014

कुछ हवा अनकही सी होती


जैसे-जैसे सर्दी की ठंड हवा तेज होती है... तो सर्दी के एहसास होने का पता चलता हैं.... वैसे ही जिन्दगी के कुछ चरण (फेस) धीरे-धीरे अपने होने का अर्थ बताते है....होना भी चाहिये उसे समझने और न समझने की क्षमता...नही तो जिन्दगी निरस होने लगती है...कई कहानी जीवन के साथ जुड़ी है ..किसी कहानी का रुप, रंग,भेष कोइ भी आकार में हो सकता बस पात्र बदलते रहते हैं... उस पात्र के होने पर उस पर क्या बीतती है यह उस किरधार को हो ही पता होता की वह क्य एहसास कर रहा है ....किस कारणों से कहानी को सहन कर रहा होता हैे....आज की कहानी की हवा इधर तक ही आगे की कहानी लिखेंगे कभी ओर......