पहली किश्त.........
सवाल खेल की तरह ही होते है जो बार-बार खेल खेलते रहते हैं। कभी इन खेलों में हार होती है तो कभी जीत। जिंदगी का कुछ पल ऐसे ही होता जिसमें एक पल हार निर्धारित होती है, तो एक पल में ही जीत। केवल अंतर के धरातल पर विचारों का अंतर होता है। जब हम विचारों के धरातल पर यह सोचने लगते है तो कुछ सवाल ऐसे तैयार हो जाते है, जो यह तय ही नहीं कर पाते घृणा विचारों के बिंदु पर पैदा होती है या किसी अन्य बिंदु पर धृणा की जमीन तैयार होती है।
विचारों में हमेशा किसी बात को तय करना की कोशिश रहती है, जिसका धरातल मस्तिष्क पर ही पैदा होता जाता है। केवल बाहरी आवरण उसे धरातल पर लाने का काम करता है या फिर प्रयास की रूपरेखा देता है। लेकिन कहीं बिंदु ऐसे होते है जो घृणा पैदा ही नहीं करने देते। हम सोचकर भी किसी के प्रति घृणा पैदा नहीं कर पाते है। हम बस अपने आपसे यही पूछते है ....
विचारों में हमेशा किसी बात को तय करना की कोशिश रहती है, जिसका धरातल मस्तिष्क पर ही पैदा होता जाता है। केवल बाहरी आवरण उसे धरातल पर लाने का काम करता है या फिर प्रयास की रूपरेखा देता है। लेकिन कहीं बिंदु ऐसे होते है जो घृणा पैदा ही नहीं करने देते। हम सोचकर भी किसी के प्रति घृणा पैदा नहीं कर पाते है। हम बस अपने आपसे यही पूछते है ....
घृणा पैदा कैसे की जाए?
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