Saturday 18 August 2018

सोच

मुझे विषय नही मिल रहा था कि क्या लिखूं ...काफी सोचने के बाद मित्र नें विषय दिया .."सोच"..लोकिन इसके बाद विषय में लिखूं क्या यह समझ नही आ रहा था .तो शुरूआत कि जीवन के पड़ाव से..
जीवन के हर पड़ाव को बस कुछ नामों से सम्बोधित करते ...कभी बचपन ..कभी जवानी ..तो कभी बुढ़ापा ...जीवन इन पड़ावों से गुजर कर अपना रास्ता तय करता है...सभी पड़ाव के अपने-अपने दायरें है...सभी कि अपनी उपयोगिता है...
कोई भी पड़ाव छुटे अंत नही होता ...कहने का अर्थ है कि मौत इन पड़ावों के बाद ही अपनी गति को रोकती है...
पहले पड़ाव कि बात करें तो इस कोइ कभी नही भुल सकता ..इसके होने कि महक ता उर्म इंसान के जहन में अपने होने का अर्थ देती है..जिसे नकार देना इंसान कि सबसे बड़ी भूल हो सकती है..उम्र बितने के साथ इंसान यह कहना नही भूलता की बचपन में मैंने ऐसा किया और ऐसा नही ..यह वाक्य उसके जहन में हर वक्त रटा रहता है ....इन वाक्यों के बिना इंसान अधूरा ही होता है..
बचपन के हर लम्हें को हम जैसा चाहे जी सकते ना किसी का दबाव होता है ..ना किसी कि बंदिश होती है ...हम अपनें विचारों से ...भाव से ..मन से ...जहन से..दिल से..दिमाग से...दबाव से ...हर रुप में पाक साफ होते हैं ...जहां गलतियाँ बचपनें के नाम से मशहूर होती हैं...तभी तो कहते बचपन -बचपन हैं जिसे कभी भुला नही जा सकता...जिसे जैसे रुप में उसे समझना है ...वह वैसे समझ सकता है ..मन आपका है ..तो सोचने कि इच्छा भी आपकी है ...बचपन भी आप का ही है...
दूसरे पड़ाव में जिन्दगी उलझने पैदा करना शुरु कर देती ..जहां बचपन का बचपना दुर हो जाता है ...समझ का दायरा पैर प्रसार लेता है...जहां गलतियां ...गलती में गिनी जाती है...अब बचपन अपने दायरें को बहुत पीछे छोड़ देता है...उलझने सीमा से परे सोचने को मजबूर करनें लगती है...अब जहन ..भाव..विचार... सोच ...मन ..उम्मीद..बंदिशें ...सब का दायरा बड़ जाता हैं...अब समझ नही होती... रटी बातें प्रभावी होती हैं...जहां बाहरी अडंबर हावी होता ..किसी को किसी जिद्द होती ...जहां भागने कि कोशिश रहती है...रेस में सब से आगे निकलने कि चाह हावी होती...जहां लड़ाई दूसरे से  ज्यादा अपने आप से होती है...
यह पड़ाव अपने में सब कुछ समा कर रखता है ..जिसे जिताना खोजे वह उतना जहन को निचोड़ता है...कभी दायरें मजबूरी का रुप लेते है ...अब जीवन तरह-तरह के रंगों से भरें होने कि जगह ..बेरंग छवि का होता है ...अब बचपन जहन में खुशी का संचार का माध्यम होती है ..जिसे सोचकर खुश होने का मंत्र लिया जाता है .......  
ऐसा नही कि हर दूसरे पड़ाव में हर कुछ उलझन में होता है...कुछ उलझने समझते-समझते जीवन के होने का अर्थ समझने में असानी हो जाती हैं... और बहुत कुछ अच्छा भी होता है..जहां आशा...दिलासा...उम्मीद....धैर्य ...कर्म...ओर बहुत कुछ जीवन को बांध कर रखता है...कुछ पल को व्यक्ति बस समझता है...कि यह नियम संसार में सब के साथ बंधा होता है..उस से भागा नही जा सकता ..उस का होना एक निर्धारित क्रम में जीवन ने लिखा ...बस उस का सामना करना ही अंतिम लक्ष्य है ...जहां विजय आप के साहस पर है ...आप अपने आपसे विजय होकर संतुष्ट होते है..
तीसरा पड़ाव बुढ़ापा है..जो आना सबके साथ तय....यह फिर हमें बचपन कि ओर खींच लेता है ..जहां अंत का इंतजार होता हैं .. बस ...इंतजार...इंतजार ...ओर इंतजार....