विकिपीडिया पर विरोध के इतिहास को खोजने का प्रत्यन कर रहा था ..परन्तु मिला नही
... मिला तो केवल विरोध शब्द का अर्थ है प्रतिपक्षता... विरोध किसी भी रूप में हो
सकता है ... जो जन्म से लेकर मृत्यु तक मनुष्य के साथ जुड़ा रहता है....विरोध को
परिभाषित करने का ना समर्थ है मुझमें ना समझ है?लेकिन विरोध करना भी जरूरी है? ... हर बात को केवल बिना विरोध
के धारण कर लिया जाये तो विरोध शब्द की ना जरूत होगी ना उसके अस्तिव पर सवाल होगें
??..
विरोध में एक तरह की गूंज
होती है ... जो स्वंय ही विरोध की रचना कर लेती है ....विरोध की गूंज चाहे दर्द की
हो ... भय की हो ... अहंकार की हो .... चाहे मान-सम्मान की हो ...या फिर कोई भी
विचार या विचारधारा की हो .... विरोध स्वर लेता है .....जिस समय अस्तिव पर सवाल
होने लगते है... तो विरोध स्वाभाविक रूप से विरोध की धारण ओढ़ लेता है ...और संघर्ष
करना शुरू कर देता है ....
विरोध संघर्ष ही जो कभी आक्रोश के रूप में भी प्रकट
होता है ...विरोध विजय की प्राप्ति पर ही आपनी आवधारण को समाप्त करता है ...विरोध
में एक विरोधी की जिद्द होती है ... जिसमें अपनें विचारों से श्रेष्ठ विचार कभी
नही दिखता ...उसे केवल विजय प्राप्त करनी होती है .. तभी उसका विरोध शांत होता है
..विरोध बुरा और सही दोंनो के लिए होता है ...जो जिसे रूप में देखे विरोध उसी रूप
को धारण कर लेता है ...अच्छे के लिए अच्छा और बुरे के लिए बुरा ...लेकिन विरोध
दोनों के लिए होता है ...सवाल कुछ भी हो ....विरोध आखिरकार विरोध ही है .....
(सभी विचार विनोद के दशर्न आधारित है )