Friday 30 October 2015

कुमाऊं संस्कृति की संस्कार परंपरा (अंतिम संस्कार के संदर्भ में)

संस्कार की परंपरा भारतीय समाज को एक अलग पहचान दिलाती है.. संस्कार की परंपरा में बहुत सी परंपरा आती है। जिसमें जन्म के साथ नामकरण, मौत के साथ अंतिम संस्कार आते हैं.... दोनों ही संस्कार मनुष्य के जीवन का हिस्सा है.... लेकिन एक हिस्से में मनुष्य का चित होता है तो दूसरे हिस्से में बिना चित का मात्र देह(शव)... जन्म संस्कार में मनुष्य को अपनी पहचान के लिए नाम दिया जाता है....वही अंतिम संस्कार में उसका देह का अंत किया जाता है।
आज केवल कुमाऊं के पहाड़ी परंपरा के अंतिम संस्कार पर लिखा रहा हूँ .. जहां व्यक्ति खुद उपस्थित होकर भी खुद की उपस्थित दर्ज नही करा पाता है... कुमाऊं में अधिकत्तर जनसंख्या हिंदू धर्म को मानने वाली हैं.. जहां किसी की मृत्यु पर उसके देह को परिवार,गांव,समाज द्वारा अंतिम यात्रा दी जाती है .. जिसे कहा जाता है मलामी ... कुमाऊंनी संस्कृति में अंतिम यात्रा को इसी नाम से संबोधित किया जाता है... जहां नदी पर चिता का निर्माण किया जाता ... चिता से पूर्व गांववाले उस परिवार को सहयोग के नाम पर कुछ राशि देते हैं.. उसी के साथ-साथ अंतिम संस्कार के लिए कुछ लकड़ी भी देते हैं... जो चिता को बनाने में प्रयोग कि जाती है..... पहाड़ी जीवन की संस्कृति का यह हिस्सा है.. जिसे गांव के भाईचारे का संबंध कहा जाए या फिर ग्रामीण संस्कृति का हिस्सा ... लेकिन यह संस्कृति ही एक गांव के समाज संबंध की नींव रखती है... जिसे आज भी गांव की संस्कृति कहा जाता है।
अंतिम यात्रा में संस्कार को नदी के किनारे किया जाता है जहां चिता को बनाया जाता है.. औरतों को आज तक अंतिम यात्रा में शामिल होने नही दिया जाता है .. जिसे हिंदू संस्कृति का हिस्सा माने या फिर यह माना जाता है स्त्रीयां शव को जलते हुए देख नही सकती है.. उनके कोमल स्वाभाव को भी कारण माना जाता है.. इसी कारण से महिलाओं को अंतिम शव यात्रा में शामिल नही होने दिया जाता है।
अंतिम संस्कार से पूर्व पिंड का दान किया जाता है। जिसे सूर्य को अर्पित किया जाता है.. नदी किनारे चिता का निर्माण किया जाता हैं... जहां देह को अग्नि के सुपूर्द कर दिया जाता है.. जहां उसके क्रिया कर्म करने वाले व्यक्ति के बालों का मुंडन करने की भी परंपरा को निभाया जाता है.. उसके पश्चात अंतिम संस्कार में आये व्यक्तियों को नदी के पास ही भोजन कराया जाता है... बाद में जिस व्यक्ति ने चिता को मुख अग्नि दी होती है .. उसे क्रिया कर्म करना होता है.. जिसे पुत्र द्वारा ही किया जाता है.. जिसमें बारह दिन की कड़े नियमों का पालन करना होता है ..जिसमें 10 दिन तक एक कलश में ज्योत जलाया जाता है .. और हर प्रातकाल को कुछ गांव के हिस्से में जाकर कुछ नियमों का पालन करना होता है .. जिसे पंडित द्वारा धार्मिक कर्मकाण्ड के अनुसार कराया जाता जाता है(पहाड़ी बोली में इसे गाड़ का काम कहते हैं) .. जिसमें रोज पिंड दान , नहाना आदि नियमों को किया जाता है.. साथ ही क्रिया पर बैठे व्यक्ति को एक अलग कमरे रख जाता है .. जहां महिलायें अंतिम क्रिया पर बैठे व्यक्ति को देखने की अनुमति नही होती है... क्रिया पर बैठे व्यक्ति को कफन का कपड़ा सिर पर बांधना होता है .. और 10वें दिन तक कलश में जले ज्योत की और सिर रख सोना होता है.. केवल एक समय खाना खाने कि अनुमति होती है.. वह भी कुछ नियम के अनुसार ही खाने की अनुमति होती है... उसी के साथ परदे का घेरा बनाकर क्रिया कर्म के व्यक्ति को रहना होता है .. जहां वह 12 दिन तक रहता है..आदि अन्य क्रिया कर्म के नियमों का पालन करना होता है।
10 दिन बाद परदे का घेरा खतम हो जाता है और परिवार द्वारा घर के सभी कपड़ों को धोया जाता है ..साथ ही गाड़ का कार्य खतम हो जाता है.. कलश के  ज्योत को 10 वे दिन नही जलाया जाता है। 12वें दिन बाद ही पंडित द्वारा घर में शुद्धि पूजा की जाती है ..  जिसे पीपल पीठा कहा जाता है .. जिसमें पंडित द्वारा पीपल के पत्तों की पूजा की जाती है .. जिससे माना जाता है .. अब घर पर शुद्धि हो जाती है...इन 12 दिनो में एक परंपरा मुखतक नाम की भी होती है जिसमे परिवार के मित्रगण, दूर के सगे संबंधी आदि जो मृत्यु पर शोक व्यक्त करने आते है... जिसमें..वार अर्थात् किसी विशेष दिन ही अन्य व्यक्ति शोक व्यक्त कर सकते है... जिसमें साधारण दिनों से उलटे दिन चुना जाता है.. जिसमें मंगवार, शानिवार जैसे वार शामिल होते हैं.. और क्रिया कर्म पर बैठे व्यक्ति को सांत्वना के शब्द के साथ कुछ दान दिया जाता है।
इसी तरह से अंतिम संस्कार की परंपरा पहाड़ों में प्रचलित है..साथ 12वें दिन पंडित को दान और पीपल पीठा कर घर को शुद्ध किया जाता.. और 12वे दिन गांव को चावल दाल का भोजन कराया जाता है.. और 6 माह के लिए अन्य कार्य छोड़ दिया जाते है .. लेकिन क्रिया पर बैठे व्यक्ति को 6 माह तक कुछ नियमों का पालन करना होता है ... जिसमें खाने में शुद्धता .. नहाने... पूजा आदि नियम शामिल होते हैं.. 12 वे दिन के बाद से घर के मंदिर में दिए जलाने शुरु हो जाते हैं... और क्रिया पर बैठा व्यक्ति अपने रोज के दिनचर्या में आ जाता है .. लेकिन 6 माह के बाद छमासी करनी होती है .. जिसमें पिंड दान ..पूजा .. गांववासीयों को भोजन करना आदि शामिल होता है।
जिस तरह से मनुष्य की जीवन यात्रा शुरु होती है उसका अंत भी होता है... जिस अग्नि से मनुष्य के जीवन को नामकरण संस्कार में हवन कर नाम दिया जाता है.. जिस अग्नि से मनुष्य खाने के लिए भोजन को पकता है... जीवन के साथ फेरे लेता है...एक दिन उसी अग्नि में अपने शव को जलते हुए इस दुनिया की यात्रा से अंत होता है...
अग्नि की भूमिका उसके जलने की प्रवृति ..अंत में मनुष्य के जीवन का भी अंत कर देती है। हर एक यात्रा का कोई अंत जरुर होता है.... वैसे ही जीवन की यात्रा का अंत अंतिम संस्कार नामक यात्रा से होता है.. जो बस उसकी यादों के साथ परिवार में रह जाती है.... बस एक यात्रा के समाप्त होने के साथ ही जीवन की दूसरी यात्रा का अनुमान लगाते है....
(अंतिम संस्कार में कई क्रिया कर्म के कार्य को किया जाता है...लेख में केवल कुछ की ही चर्चा हुई है)

संदर्भ सूची
गांव के बुजुर्ग व्यक्ति से बातचीत।
क्रिया कर्म की प्रक्रिया को देखना।

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