Wednesday 27 August 2014

किस्सा सफर का .......


कहीं दिन से एक किस्सा याद आ कर लिखने को मजबूर कर रहा है ..कहानी कह लो , वाकया ,आपबीती या घटना कुछ भी नाम दिया जा सकता ..पर लिखने के बाद सोचने का मौका जरूर देगा...गाँव जाते सफर में  एक व्यक्ति बस की सीट में साथ बैठा था .. कुछ कहना चाहता था .. पर मैं ध्यान नही दे रहा था उसकी बातों पर ...कुछ कहे जा रहा था ...कहानी थी उसकी ..आपबीती ...आखिरकार कहानी सुनी ...बिहार राज्य के कोई जिले से काम कर घर लौट रहा था ..छुट्टी पर...रास्ते में रेल सफर में ट्रेन में सब कुछ चोरी हो चुका था  (सभी कहानी भट्टजी पर आधारित थी..नाम नही पता ..नाम के पीछे की जात बता दी थी) भट्टजी ने जहरखुरानी गिरहो की कहानी अपने साथ हुऐ वाकया में सुना दी...कहानी में जहरखुरानी गिरोह के बारे में नई बात कह दी की जहरखुरानी ने नया तरीका अपना लिया है लुटने का ....कुछ सुंघा दिया ..और सब कुछ चोरी कर ले गये ...होश सुबह ही आया नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर...

सोचने की बात यह की पहाड़ी मस्त(शराब का नशा) होने की कहावत का एक किस्सा था...  जिसमें सब कुछ भट्टजी के मस्त होने के कारण हुआ..

कहानी खत्म नही हुइ अभी आपबीती में ओर भी बाकि हैं ...भट्टजी ने सुनाया की वह खाली जेब होे चुके थे.. जब नई दिल्ली में होश में आया ...अब जायें तो जायें किधर ...अभी भी  गाँव जाने के लिये बस का किराया चही था ..कहानी भट्टजी के बारे में जब और सोचने को मजबूूर कर देती..... जब वह नई दिल्ली से आनंद बिहार बस अड्डे का सफर पैदल तय कर आये ...क्याें न करते जेब में पैसे नही थे ....आनंद बिहार से गाँव के सफर के लिये बस किराया न था...बस अड्डे पर कही कंडेक्टर से बात कर अपनी आपबीती सुनाई तो एक ने बस में बैठा लिया ..किसी से फोन पर बात कर के... कंडेक्टर पहले भी ऐसे ठगा जा चुका था ..क्योंकि कही बार ऐसे यात्री आते है और गाँव पहुँच कर पैसे देने की बात करते है...अंत समय में गाँव पहुँच कर बिना पैसे दिये भाग जाते है..

क्या भट्टजी की कहानी सुन आप भट्टजी की  मदद करते या नही....?

भट्टजी के अनुसार उन्होंने  घर से अपनी पत्नी को बस अड्डे बुलाया था .. पत्नी से पैसे लेकर कंडेक्टर के टिकट का पैसे  देने वाले थे...  गाँव के बस अड्डे पहुँचने से पहले कंडेक्टर के फोन से कहीं बार अपनी पत्नी को फोन कर चुके थे... 
पैसे कंडेक्टर को मिले या नहीं....यह पता नहीं...(बस का सफर 18 घंटे का था तो किराये का अनुमान आप लगा सकते हैं)
कहानी का अंत नही पता क्योंकि में गाँव के बस अड्डे पर पहुँच कर अपने घर चला गया था...
  इस आपबीती से आप को क्या लगता है ...ऐसा आप के साथ हो तो आप क्या करेंगे ....कैसे बिना पैसे के खाली जेब सफर कर पायें.....
 सबसे बड़ा सवाल यह की क्या भट्जी की आपबीती सुन आप उनकी मदद करते या नही ...?
क्योंकि आज का दौर में मदद करने से पहले बहुत कुछ सोचना पढ़ता हैं...?
और सोचे भी क्यों न .....................................?

सफर के किस्से में कही बात लिख नही पाया हूँ.... नही तो सवाल की झड़ी आप के माथे पर नजर आयेगी......

Tuesday 26 August 2014

वाकया हकीकत का......

ऑफिस गये और खबर मिली की ऑफिस छोड़ कर जाना है ...वह जाना एक दिन का नही ऑफिस से हमेशा का जाना था...किसी अहं के चलते ऑफिस छोड़ना ...ऐसे सवाल नही जवाब बनातेे है...अपने ऊपर ही नही दूसरे पर ...यही हकीकत हैं...
हकीकत हो भी क्यों नही जहां इंसानियत के वजूद पर सवाल उठते हो?
 वाकया एक दिन में नही बनाया जाता.. उसके पीछे पृष्ठ भूमि का निर्माण किया जाता है..कारण  होते हैं..कुछ अहं से अहं की गूंज  ...अहं हलचल के साथ तूफान ला देता है.. जो शांत तभी होते हैं... जब तक अपने होने की मौजूदगी न दें...

कहानी अधूरी है पर हकीकत के करीब....


Monday 25 August 2014

बिखरती जिन्दगी.....

पेड़ के पत्तों से बिखरती जिन्दगी ..
 जो पत्ते सिमट जाये वैसी रह गयी जिन्दगी
बिखराव तो अधूरा सा था
 किस किस को सिमटती जिन्दगी...
 


Friday 15 August 2014

कौन सी आजादी .....

देश आजाद हो गया परन्तु हम कितने आजाद हुऐ समझ नही आता.. 67 वर्ष की आजादी के बाद भी आजादी की परिभाषा वही है ...जो आजाद न होने पर थी...आज भी जात पात की राजनीति, वर्ग विशेष का अंर्तर, गरीब अमिर की खाई, धर्म विशेष की पहचान ...67 साल बाद भी क्या बदला... क्या महसूस किया ...क्या पाया ...क्या देखने को मिलता हैं...आज भी धर्म के नाम पर वही खेल खेला जाता है.. जो आजादी से पहले खेला जाता ..लोंगो की भावना को धर्म के साथ जोड़ नया रंग दिया जाता हेै  ...फिर भी कहते हैं आजाद हैं हम ...यह कौन सी आजादी जहां धर्म तंत्र के नाम पर राजतंत्र की परिभाषा को गड़ा जाता है..व्यक्ति विशेष की पहचान बनाई जाती ... लोंगो के शोषण के साथ अपने घर की रोटी सेकी जाती हैं....कौन सी आजादी का जसन हम बना रहे है ...  आज भी कही सवाल कौंध जरुर करते...

Thursday 14 August 2014

जो लड़ना नही जनता ..

लड़ तो हम रहे उससे भी
जो लड़ना नही जनता ....
आक्रोश फिर भी उसी पर दिखा रहे हैं
जो लड़ना नही जनता ..
नाटक के मंच की तरह दिखती है जिन्दगी 
जो लड़ने और लड़ाने में भेद न ढूंढती....