Tuesday 14 July 2015

मीडिया की मंडी...


जिस मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है ... कभी उसे उस रूप में समझ ही नहीं पाया हूँ... मीडिया के क्षेत्र में आकार यही समझ आया है कि यह मंडी है... दल्लों की जहां.. हर कोई दलालगिरी करने में लगा है... और इसे लोकतंत्र के स्तंभ के रूप में देखना सबसे बड़ी भूल होगी..
इस मंडी में वही दल्ला दलालगिरी कर सकता है ... जिसके पास दिमाग नामक विवेक है... लेकिन वह विवेक सच से परे दलालगिरी की मंडी में चलता है .. रोज सुनने में आता है .. फला चैनल बंद हो गया ...फला मीडिया हाऊस से इतने लोगों को नौकरी से निकाल दिया ...  आखिर क्या कारण होता है कि मीडिया की यह दुकान भी मौसम के फलों और सब्जियों के साथ रेहड़ी की दुकान लगाने जैसी हो गई है.... मौसम बदला और मंडी से फला मीडिया की दुकान बंद हो जाती है... बंद होने से पहले इन मंडीयों से शोषण के रूप में मीडिया के कथित रूप से कहे जाने वाले पत्रकारों की छंटनी शुरू हो जाती है... (क्या यह संकेत होता है)
जिसे मीडिया की मंडी कोस्ट कटिंग का नाम कहकर निकाल देती है... जो पत्रकार निकलता है वह इस शोषण का विरोध नहीं करता ...बल्कि नीति का खेल या फिर भाग्य का खेल मान ... अपने आपको मना रहा होता है ...  कि भाग्य में यही लिखा था और यहां का दना-पानी बस इतना ही है...
विरोध ना वह कर पाता है ..ना करना चाहता है क्योंकि उसे भविष्य में पत्रकार जो बने रहना .. जिससे उसे समाज में इज्जत मिलती... चाहे खाने के लिए घर में अन्न का एक दाना ना हो ..लेकिन कथित रूप से पत्रकार की मोहर जो लगाकर रखनी है ...
मीडिया की मंडी में शोषण की दुकान का लक्ष्य जो बने रहना है ...आखिर कब तक ????????
इस मंडी में वही टीक पाया है जो मंडी में दलाल की भूमिका आदा कर सके ... जो वैश्यों से बढ़ा जिस्म फरोसी की दल्लागिरी कर सके .. चाटुकारिता की मंडी मैडल सिने में लगाकर चल सके,, वही इस मंडी में टीक सकता है.. नहीं तो यह मंडी वैश्या की स्थिति में भी नहीं छोड़ती ..... कहने को इस मंडी में बुद्धिजीवों की बिरादरी... जो दिन दुनिया के शोषण की आवाज उठाते हैं ..लेकिन अपने शोषण में मालिक के गुलाम होते हैं ... जिसमें मालिक गलत को सही कहने को कहे तो यह बुद्धिजीवी सही कहते हैं और गलत को सही कहने के लिए ज्ञान की बौछार कर देते हैं ...
मालिक ही इनके ही सर्वा होता है ... जिसके लिये यह किसी से भी लड़ सकते हैं ...यह कहानी है चाटुकारिता के दल्लों की ...
बस शब्दों की दुकान को आज विराम देता हूँ ...मगर मीडिया की मंडी सदा ऐसे ही चलती रहेगी... मंडी से एक रेहड़ी गई तो दूसरी रेहड़ी आने को तैयार रहती है...

No comments:

Post a Comment